गुरू शिष्य परंपरा का संवर्धन अर्थात् गुरूपूर्णिमा’ 

रितेश कुमार संवाददाता वाराणसी 

 

विश्वगुरू भारत गुरूपूर्णिमा चारों वेदों के कर्ता व्यास जी की जयंती के दिवस से प्रसिद्ध है। इसे श्रावणी पूर्णिमा भी कहते हैं। इस पर्व को जैन, बौद्ध और सिक्ख अनुयायियों के द्वारा मनाया जाता है। सनातन धर्म में गुरू का महत्त्व भगवान से भी बड़ा बताया है। गुरू शब्द नहीं अपितु इसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्तियों का समावेश है। यदि गुरू शब्द की व्याख्या करें तो इतना संभव नहीं है किंतु सामान्य अर्थ में कहां जाता है गुरू अर्थात अंधकार (अज्ञान) और रू प्रकाश (ज्ञान) इस प्रकार अज्ञान रुपी अंधकार से ज्ञान रुपी प्रकाश के पथ पर ले जाने वाली दृष्टि प्रधान करने वाले। अब प्रश्न उठता है कि अज्ञान के बाद सीधा ज्ञान कैसे मिल सकता है? जिस प्रकार अमावस्या रुपी घोर अंधेरी रात्रि के अंधकार को सूर्य उदित होकर अपनी देदीप्यमान किरणों से अंधकार को समाप्त कर देता है वैसे ही गुरू भी मंद से मंद बुद्धि शिष्य को भी ज्ञान ,संस्कार, आदर्शों से धनाढ्य बना देता है। गुरु के ज्ञान का कोई मोल भाव नहीं लगाया जा सकता गुरु के बिना जीवन शून्य है। आर्षकाल से ही हमारा भारत देश विश्व गुरु की उपाधि से अलंकृत रहा है क्योंकि जो गुरु शिष्य परंपरा भारत में है वो अंयत्र कहीं नहीं,यही नहीं यहां तक कि देवताओं और दानवों मैं भी गुरु शिष्य परंपरा के ऐसे अनेक उद्धरण हमारी ग्रंथों में हैं जहां गुरु पद सर्वोच्च कहां गया है। जैसे देवताओं के गुरु अंधेरा के पुत्र बृहस्पति हैं और असुर ओके गुरु शुक्राचार्य हैं। महाभारत काल में भी महाधनुर्धर अर्जुन और एकलव्य, कौरवों तथा पांडवों के गुरू द्रोणाचार्य थे वही कर्ण के गुरू परशुराम थे। और अर्थशास्त्र सम्राट आचार्य चाणक्य के गुरू उनके पिता चणक थे। इस प्रकार से गुरु शिष्य परंपरा हमारे यहां अनादि काल से विद्यमान हैl मनुस्मृति में कहां गया है कि बालक की सबसे पहली गुरू माता होती है। उपनयन संस्कार के बाद शिशु का दूसरा जन्म माना जाता है इसलिए उसे द्विज कहते हैं। उपनयन संस्कार के बाद ही छात्र को गुरू उपदेश देते थे यानि कि उसे शिक्षा ग्रहण करने के लिए गुरू के यहां ही रहना पड़ता था जिसे गुरुकुल कहते हैं। जब इंग्लैंड (यूरोप) जैसे देश में एक भी सामान विद्यालय तक नहीं उठा उस समय भारत में सात लाख से अधिक गुरुकुल थे ऐसे ही भारत को विश्वगुरू नहीं कहा जाता उस समय भारत की साक्षरता 90 % से अधिक थी और राजा महाराजा के आधीन गुरुकुल नहीं थे बल्कि पूरे समाज के सहयोग से पूरी शिक्षा नि: शुल्क दी जाती थी। पांच वर्ष तक की आयु वाले ही छात्रों को गुरुकुल में प्रवेश दिया जाता था और 14 वर्ष तक गुरू के पास रहकर शिक्षा ग्रहण करनी होती थी। वहां विभिन्न विषयों जैसे वैदिक गणित,खगोल शास्त्र, भवन विज्ञान, भौतिक विज्ञान,नक्षत्र विज्ञान,रसायन शास्त्र, शौर्य विज्ञान,चिकित्सा शास्त्र,आयुर्वेद, धनुर्वेद, सामवेद, भैषज्य वेद (अथर्ववेद),शल्य चिकित्सा, संहिता शास्त्र, अर्थशास्त्र, न्याय, व्याकरण, दर्शन, 64 कलाएं, अर्थशास्त्र आदि विषयों का ज्ञान सूर्योदय से सूर्यास्त पर्यंत तक दिया जाता था और 14 वर्ष के बाद जब छात्र अपनी शिक्षा पूर्ण करके गुरुकुल से निकलता था तब उसको बताना नहीं पता था कि समाज, देश, राष्ट्र, विश्व की उन्नति में अपना दें बल्कि वह स्वयं अपने राष्ट्र हित के लिए सदैव कर्तव्यपरायण रहता था। और यही वजह रही है कि इतने आक्रांताओं ने आक्रमण किए इसके बाद भी वो हमारे राष्ट्र का नामोनिशान नहीं मिटा सके। और आज ये गुरु पूर्णिमा उसी गुरु शिष्य परंपरा को बढ़ावा देने का स्मरण कराती है। हम सभी का कर्तव्य है कि हम अपने माता-पिता अपने बड़े ज्येष्ठ- श्रेष्ठ जनों अपने शिक्षण गणों अपने दीक्षित गुरूजनों एवं गुरुकुल प्रणाली शिक्षा को आज भी जीवंत बनाए रखने वाले महर्षियों सदैव ऋणी रहें क्योंकि शास्त्र कहते हैं माता -पिता और गुरू का ऋण अनेकानेक जन्म लेकर भी नहीं चुकाया जा सकता।

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