इमरजेंसी की काली रात और हरियाणा का संघर्ष: प्रो. रामबिलास शर्मा की कहानी

राजेश भारद्वाज स्टेट हेड हरियाणा

तानाशाही के दौर में आवाज़ उठाने वाला अहीरवाल का सपूत

 

महेंद्रगढ़। वर्ष 1975 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला अध्याय माना जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए इस आपातकाल का पूरे देश में व्यापक विरोध हुआ, जिसमें हरियाणा, खासकर अहीरवाल क्षेत्र की भूमिका उल्लेखनीय रही। इस विरोध की अगुआई करने वाले प्रमुख नेताओं में युवा नेता प्रो. रामबिलास शर्मा का नाम आज भी श्रद्धा और सम्मान के साथ लिया जाता है।

 

आपातकाल के दौरान जनसंघ के संगठन महामंत्री रहे रामबिलास शर्मा ने सत्याग्रह का संचालन किया। रोहतक से शुरू हुआ यह आंदोलन पुलिस दमन और बर्बरता के बावजूद थमा नहीं। एक जत्था जिसमें लाला श्री अमरचंद, भगवान दास बंसल, मदनलाल हरदोई, प्रो. श्याम पसरिजा, जगदंबा प्रसाद और रमेश चंद्र जैसे लोग शामिल थे, पुलिस हिरासत में गायब कर दिए गए। इन्हें न अदालत में पेश किया गया, न ही गिरफ्तारी दिखाई गई।

 

30 नवंबर 1975 को नाहड़ (झज्जर) पुलिस चौकी के सामने सत्याग्रह करने पहुंचे रामबिलास शर्मा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और बुरी तरह से टॉर्चर किया। टॉर्चर इतना भीषण था कि वे बेहोश हो गए और उनके मुंह-कान से खून बहने लगा। 4 दिसंबर को उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश कर 8 दिन का रिमांड लिया गया और अंबाला इंटेरोगेशन सेंटर भेजा गया, जहां उन्हें और भी यातनाएं दी गईं।

 

एक गुप्त पत्र के माध्यम से उन्होंने प्रेमचंद गोयल तक अपनी पीड़ा पहुंचाई, जिसके बाद इस अत्याचार की कहानी ‘तानाशाही से जूझता हरियाणा’ पुस्तक में दर्ज की गई।

 

बाद में उन्हें मीसा एक्ट के तहत रोहतक जेल भेजा गया, जहां बीजू पटनायक, चौधरी देवीलाल, पं. श्रीराम शर्मा और पीलू मोदी जैसे दिग्गज नेता भी बंद थे। सभी ने उनकी गंभीर हालत देखी और उन्हें मेडिकल कॉलेज, रोहतक भिजवाया गया। इलाज के बाद उन्हें अंबाला सेंट्रल जेल और फिर गया (बिहार) जेल भेज दिया गया।

 

उन दिनों ना मोबाइल थे, ना कोई संचार का माध्यम। रामबिलास शर्मा के बूढ़े माता-पिता अपने बेटे को ढूंढ़ते हुए दर-दर भटकते रहे। आखिरकार उन्हें पता चला कि उनका बेटा अंबाला से बिहार भेज दिया गया है।

 

आपातकाल के बाद 20 मार्च 1977 को आए चुनाव परिणामों में कांग्रेस का सफाया हो गया। 22 मार्च 1977 को रामबिलास शर्मा को गया जेल से रिहा किया गया।

 

आज भी जब प्रो. रामबिलास शर्मा उस दौर को याद करते हैं तो उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। यह कहानी न केवल उनके साहस की मिसाल है, बल्कि उस दौर की बर्बरता की भी गवाही देती है।

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